Saturday, April 11, 2020

श्री गरुड़ का काकभुशुण्डि जी से श्री रामकथा सुनना

श्री गरुड़ का काकभुशुण्डि जी से श्री रामकथा सुनना

गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुण्डा।
मति अकुंठ हरि भगति अखंडा॥
देखि सैल प्रसन्न मन भयउ।
माया मोह सोच सब गयऊ॥1॥
गरुड़जी वहाँ गए जहाँ निर्बाध बुद्धि और पूर्ण भक्ति वाले काकभुशुण्डि बसते थे। उस पर्वत को देखकर उनका मन प्रसन्न हो गया और (उसके दर्शन से ही) सब माया, मोह तथा सोच जाता रहा॥1॥
करि तड़ाग मज्जन जलपाना।
बट तर गयउ हृदयँ हरषाना॥
बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए।
सुनै राम के चरित सुहाए॥2॥
तालाब में स्नान और जलपान करके वे प्रसन्नचित्त से वटवृक्ष के नीचे गए। वहाँ श्री रामजी के सुंदर चरित्र सुनने के लिए बूढ़े-बूढ़े पक्षी आए हुए थे॥2॥
कथा अरंभ करै सोइ चाहा।
तेही समय गयउ खगनाहा॥
आवत देखि सकल खगराजा।
हरषेउ बायस सहित समाजा॥3॥
भुशुण्डिजी कथा आरंभ करना ही चाहते थे कि उसी समय पक्षीराज गरुड़जी वहाँ जा पहुँचे। पक्षियों के राजा गरुड़जी को आते देखकर काकभुशुण्डिजी सहित सारा पक्षी समाज हर्षित हुआ॥3॥
अति आदर खगपति कर कीन्हा।
स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा॥
करि पूजा समेत अनुरागा।
मधुर बचन तब बोलेउ कागा॥4॥
उन्होंने पक्षीराज गरुड़जी का बहुत ही आदर-सत्कार किया और स्वागत (कुशल) पूछकर बैठने के लिए सुंदर आसन दिया। फिर प्रेम सहित पूजा कर के कागभुशुण्डिजी मधुर वचन बोले-॥4॥
नाथ कृतारथ भयउँ मैं
तव दरसन खगराज।
आयसु देहु सो करौं अब
प्रभु आयहु केहि काज॥63 क॥
हे नाथ ! हे पक्षीराज ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हो गया। आप जो आज्ञा दें मैं अब वही करूँ। हे प्रभो ! आप किस कार्य के लिए आए हैं ?॥63 (क)॥
सदा कृतारथ रूप तुम्ह
कह मृदु बचन खगेस।॥
जेहि कै अस्तुति सादर
निज मुख कीन्ह महेस॥63 ख॥
पक्षीराज गरुड़जी ने कोमल वचन कहे- आप तो सदा ही कृतार्थ रूप हैं, जिनकी बड़ाई स्वयं महादेवजी ने आदरपूर्वक अपने श्रीमुख से की है॥63 (ख)॥
सुनहु तात जेहि कारन आयउँ।
सो सब भयउ दरस तव पायउँ॥
देखि परम पावन तव आश्रम।
गयउ मोह संसय नाना भ्रम॥1॥
हे तात! सुनिए, मैं जिस कारण से आया था, वह सब कार्य तो यहाँ आते ही पूरा हो गया। फिर आपके दर्शन भी प्राप्त हो गए। आपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरा मोह संदेह और अनेक प्रकार के भ्रम सब जाते रहे॥1॥
अब श्रीराम कथा अति पावनि।
सदा सुखद दुख पुंज नसावनि॥
सादर तात सुनावहु मोही।
बार बार बिनवउँ प्रभु तोही॥2॥
अब हे तात! आप मुझे श्री रामजी की अत्यंत पवित्र करने वाली, सदा सुख देने वाली और दुःख समूह का नाश करने वाली कथा आदर सहित सुनाएँ। हे प्रभो! मैं बार-बार आप से यही विनती करता हूँ॥2॥
सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता।
सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता॥
भयउ तास मन परम उछाहा।
लाग कहै रघुपति गुन गाहा॥3॥
गरुड़जी की विनम्र, सरल, सुंदर प्रेमयुक्त, सुप्रद और अत्यंत पवित्र वाणी सुनते ही भुशण्डिजी के मन में परम उत्साह हुआ और वे श्री रघुनाथजी के गुणों की कथा कहने लगे॥3॥
प्रथमहिं अति अनुराग भवानी।
रामचरित सर कहेसि बखानी॥
पुनि नारद कर मोह अपारा।
कहेसि बहुरि रावन अवतारा॥4॥
हे भवानी! पहले तो उन्होंने बड़े ही प्रेम से रामचरित मानस सरोवर का रूपक समझाकर कहा। फिर नारदजी का अपार मोह और फिर रावण का अवतार कहा॥4॥
प्रभु अवतार कथा पुनि गाई।
तब सिसु चरित कहेसि मन लाई॥5॥
फिर प्रभु के अवतार की कथा वर्णन की। तदनन्तर मन लगाकर श्री रामजी की बाल लीलाएँ कहीं॥5॥
बालचरित कहि बिबिधि बिधि
मन महँ परम उछाह।
रिषि आगवन कहेसि
पुनि श्रीरघुबीर बिबाह॥64॥
मन में परम उत्साह भरकर अनेकों प्रकार की बाल लीलाएँ कहकर, फिर ऋषि विश्वामित्रजी का अयोध्या आना और श्री रघुवीरजी का विवाह वर्णन किया॥64॥
बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा।
पुनि नृप बचन राज रस भंगा॥
पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा।
कहेसि राम लछिमन संबादा॥1॥
फिर श्री रामजी के राज्याभिषेक का प्रसंग फिर राजा दशरथजी के वचन से राजरस (राज्याभिषेक के आनंद) में भंग पड़ना, फिर नगर निवासियों का विरह, विषाद और श्री राम-लक्ष्मण का संवाद (बातचीत) कहा॥1॥
बिपिन गवन केवट अनुरागा।
सुरसरि उतरि निवास प्रयागा॥
बालमीक प्रभु मिलन बखाना।
चित्रकूट जिमि बसे भगवाना॥2॥
श्री राम का वनगमन, केवट का प्रेम, गंगाजी से पार उतरकर प्रयाग में निवास, वाल्मीकिजी और प्रभु श्री रामजी का मिलन और जैसे भगवान्‌ चित्रकूट में बसे, वह सब कहा॥2॥
सचिवागवन नगर नृप मरना।
भरतागवन प्रेम बहु बरना॥
करि नृप क्रिया संग पुरबासी।
भरत गए जहाँ प्रभु सुख रासी॥3॥
फिर मंत्री सुमंत्रजी का नगर में लौटना, राजा दशरथजी का मरण, भरतजी का (ननिहाल से) अयोध्या में आना और उनके प्रेम का बहुत वर्णन किया। राजा की अन्त्येष्टि क्रिया करके नगर निवासियों को साथ लेकर भरतजी वहाँ गए जहाँ सुख की राशि प्रभु श्री रामचंद्रजी थे॥3॥
पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए।
लै पादुका अवधपुर आए॥
भरत रहनि सुरपति सुत करनी।
प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी॥4॥
फिर श्री रघुनाथजी ने उनको बहुत प्रकार से समझाया, जिससे वे खड़ाऊँ लेकर अयोध्यापुरी लौट आए, यह सब कथा कही। भरतजी की नन्दीग्राम में रहने की रीति, इंद्रपुत्र जयंत की नीच करनी और फिर प्रभु श्री रामचंद्रजी और अत्रिजी का मिलाप वर्णन किया॥4॥
कहि बिराध बध
जेहि बिधि देह तजी सरभंग।
बरनि सुतीछन प्रीति पुनि
प्रभु अगस्ति सतसंग॥65॥
जिस प्रकार विराध का वध हुआ और शरभंगजी ने शरीर त्याग किया, वह प्रसंग कहकर, फिर सुतीक्ष्णजी का प्रेम वर्णन करके प्रभु और अगस्त्यजी का सत्संग वृत्तान्त कहा॥65॥
कहि दंडक बन पावनताई।
गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई॥
पुनि प्रभु पंचबटीं कृत बासा।
भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा॥1॥
दंडकवन का पवित्र करना कहकर फिर भुशुण्डिजी ने गृध्रराज के साथ मित्रता का वर्णन किया। फिर जिस प्रकार प्रभु ने पंचवटी में निवास किया और सब मुनियों के भय का नाश किया,॥1॥
पुनि लछिमन उपदेस अनूपा।
सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा॥
खर दूषन बध बहुरि बखाना।
जिमि सब मरमु दसानन जाना॥2॥
और फिर जैसे लक्ष्मणजी को अनुपम उपदेश दिया और शूर्पणखा को कुरूप किया, वह सब वर्णन किया। फिर खर-दूषण वध और जिस प्रकार रावण ने सब समाचार जाना, वह बखानकर कहा,॥2॥
दसकंधर मारीच बतकही।
जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही॥
पुनि माया सीता कर हरना।
श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना॥3॥
तथा जिस प्रकार रावण और मारीच की बातचीत हुई, वह सब उन्होंने कही। फिर माया सीता का हरण और श्री रघुवीर के विरह का कुछ वर्णन किया॥3॥
पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्हीं।
बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही॥
बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा।
जेहि बिधि गए सरोबर तीरा॥4॥
फिर प्रभु ने गिद्ध जटायु की जिस प्रकार क्रिया की, कबन्ध का वध करके शबरी को परमगति दी और फिर जिस प्रकार विरह वर्णन करते हुए श्री रघुवीरजी पंपासर के तीर पर गए, वह सब कहा॥4॥
प्रभु नारद संबाद कहि
मारुति मिलन प्रसंग।
पुनि सुग्रीव मिताई
बालि प्रान कर भंग॥66 क॥
प्रभु और नारदजी का संवाद और मारुति के मिलने का प्रसंग कहकर फिर सुग्रीव से मित्रता और बालि के प्राणनाश का वर्णन किया॥66 (क)॥
कपिहि तिलक करि
प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास।
बरनन बर्षा सरद अरु
राम रोष कपि त्रास॥66 ख॥
सुग्रीव का राजतिलक करके प्रभु ने प्रवर्षण पर्वत पर निवास किया, वह तथा वर्षा और शरद् का वर्णन, श्री रामजी का सुग्रीव पर रोष और सुग्रीव का भय आदि प्रसंग कहे॥66 (ख)॥
जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए।
सीता खोज सकल दिदि धाए॥
बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँति।
कपिन्ह बहोरि मिला संपाती॥1॥
जिस प्रकार वानरराज सुग्रीव ने वानरों को भेजा और वे सीताजी की खोज में जिस प्रकार सब दिशाओं में गए, जिस प्रकार उन्होंने बिल में प्रवेश किया और फिर जैसे वानरों को सम्पाती मिला, वह कथा कही॥1॥
सुनि सब कथा समीरकुमारा।
नाघत भयउ पयोधि अपारा॥
लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा।
पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा॥2॥
सम्पाती से सब कथा सुनकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी जिस तरह अपार समुद्र को लाँघ गए, फिर हनुमान्‌जी ने जैसे लंका में प्रवेश किया और फिर जैसे सीताजी को धीरज दिया, सो सब कहा॥2॥
बन उजारि रावनहि प्रबोधी।
पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी॥
आए कपि सब जहँ रघुराई।
बैदेही की कुसल सुनाई॥3॥
अशोक वन को उजाड़कर, रावण को समझाकर, लंकापुरी को जलाकर फिर जैसे उन्होंने समुद्र को लाँघा और जिस प्रकार सब वानर वहाँ आए जहाँ श्री रघुनाथजी थे और आकर श्री जानकीजी की कुशल सुनाई,॥3॥
सेन समेति जथा रघुबीरा।
उतरे जाइ बारिनिधि तीरा॥
मिला बिभीषन जेहि बिधि आई।
सागर निग्रह कथा सुनाई॥4॥
फिर जिस प्रकार सेना सहित श्री रघुवीर जाकर समुद्र के तट पर उतरे और जिस प्रकार विभीषणजी आकर उनसे मिले, वह सब और समुद्र के बाँधने की कथा उसने सुनाई॥4॥
सेतु बाँधि कपि सेन जिमि
उतरी सागर पार।
गयउ बसीठी बीरबर
जेहि बिधि बालिकुमार॥67 क॥
पुल बाँधकर जिस प्रकार वानरों की सेना समुद्र के पार उतरी और जिस प्रकार वीर श्रेष्ठ बालिपुत्र अंगद दूत बनकर गए वह सब कहा॥67 (क)॥
निसिचर कीस लराई
बरनिसि बिबिध प्रकार।
कुंभकरन घननाद कर
बल पौरुष संघार॥67 ख॥
फिर राक्षसों और वानरों के युद्ध का अनेकों प्रकार से वर्णन किया। फिर कुंभकर्ण और मेघनाद के बल, पुरुषार्थ और संहार की कथा कही॥67 (ख)॥
निसिचर निकर मरन बिधि नाना।
रघुपति रावन समर बखाना॥
रावन बध मंदोदरि सोका।
राज बिभीषन देव असोका॥1॥
नाना प्रकार के राक्षस समूहों के मरण तथा श्री रघुनाथजी और रावण के अनेक प्रकार के युद्ध का वर्णन किया। रावण वध, मंदोदरी का शोक, विभीषण का राज्याभिषेक और देवताओं का शोकरहित होना कहकर,॥1॥
सीता रघुपति मिलन बहोरी।
सुरन्ह कीन्हि अस्तुति कर जोरी॥
पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता।
अवध चले प्रभु कृपा निकेता॥2॥
फिर सीताजी और श्री रघुनाथजी का मिलाप कहा। जिस प्रकार देवताओं ने हाथ जोड़कर स्तुति की और फिर जैसे वानरों समेत पुष्पक विमान पर चढ़कर कृपाधाम प्रभु अवधपुरी को चले, वह कहा॥2॥
जेहि बिधि राम नगर निज आए।
बायस बिसद चरित सब गाए॥
कहेसि बहोरि राम अभिषेका।
पुर बरनत नृपनीति अनेका॥3॥
जिस प्रकार श्री रामचंद्रजी अपने नगर (अयोध्या) में आए, वे सब उज्ज्वल चरित्र काकभुशुण्डिजी ने विस्तारपूर्वक वर्णन किए। फिर उन्होंने श्री रामजी का राज्याभिषेक कहा। (शिवजी कहते हैं-) अयोध्यापुरी का और अनेक प्रकार की राजनीति का वर्णन करते हुए-॥3॥
कथा समस्त भुसुंड बखानी।
जो मैं तुम्ह सन कही भवानी॥
सुनि सब राम कथा खगनाहा।
कहत बचन मन परम उछाहा॥4॥
भुशुण्डिजी ने वह सब कथा कही जो हे भवानी! मैंने तुमसे कही। सारी रामकथा सुनकर गरुड़जी मन में बहुत उत्साहित (आनंदित) होकर वचन कहने लगे-॥4॥
गयउ मोर संदेह
सुनेउँ सकल रघुपति चरित।
भयउ राम पद नेह
तव प्रसाद बायस तिलक॥68 क॥
श्री रघुनाथजी के सब चरित्र मैंने सुने, जिससे मेरा संदेह जाता रहा। हे काकशिरोमणि! आपके अनुग्रह से श्री रामजी के चरणों में मेरा प्रेम हो गया॥68 (क)॥
मोहि भयउ अति मोह
प्रभु बंधन रन महुँ निरखि।
चिदानंद संदोह राम
बिकल कारन कवन॥68 ख॥
युद्ध में प्रभु का नागपाश से बंधन देखकर मुझे अत्यंत मोह हो गया था कि श्री रामजी तो सच्चिदानंदघन हैं, वे किस कारण व्याकुल हैं॥68 (ख)॥
देखि चरित अति नर अनुसारी।
भयउ हृदयँ मम संसय भारी॥
सोई भ्रम अब हित करि मैं माना।
कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना॥1॥
बिलकुल ही लौकिक मनुष्यों का सा चरित्र देखकर मेरे हृदय में भारी संदेह हो गया। मैं अब उस भ्रम (संदेह) को अपने लिए हित करके समझता हूँ। कृपानिधान ने मुझ पर यह बड़ा अनुग्रह किया॥1॥
जो अति आतप ब्याकुल होई।
तरु छाया सुख जानइ सोई॥
जौं नहिं होत मोह अति मोही।
मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही॥2॥
जो धूप से अत्यंत व्याकुल होता है, वही वृक्ष की छाया का सुख जानता है। हे तात! यदि मुझे अत्यंत मोह न होता तो मैं आपसे किस प्रकार मिलता?॥2॥
सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई।
अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई॥
निगमागम पुरान मत एहा।
कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा॥3॥
और कैसे अत्यंत विचित्र यह सुंदर हरिकथा सुनता, जो आपने बहुत प्रकार से गाई है? वेद, शास्त्र और पुराणों का यही मत है, सिद्ध और मुनि भी यही कहते हैं, इसमें संदेह नहीं कि-॥3॥
संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही।
चितवहिं राम कृपा करि जेही॥
राम कपाँ तव दरसन भयऊ।
तव प्रसाद सब संसय गयऊ॥4॥
शुद्ध (सच्चे) संत उसी को मिलते हैं, जिसे श्री रामजी कृपा करके देखते हैं। श्री रामजी की कृपा से मुझे आपके दर्शन हुए और आपकी कृपा से मेरा संदेह चला गया॥4॥
सुनि बिहंगपति बानी
सहित बिनय अनुराग।
पुलक गात लोचन सजल
मन हरषेउ अति काग॥69 क॥
पक्षीराज गरुड़जी की विनय और प्रेमयुक्त वाणी सुनकर काकभुशुण्डिजी का शरीर पुलकित हो गया, उनके नेत्रों में जल भर आया और वे मन में अत्यंत हर्षित हुए॥69 (क)॥
श्रोता सुमति सुसील सुचि
कथा रसिक हरि दास।
पाइ उमा अति गोप्यमपि
सज्जन करहिं प्रकास॥69 ख॥
हे उमा! सुंदर बुद्धि वाले सुशील, पवित्र कथा के प्रेमी और हरि के सेवक श्रोता को पाकर सज्जन अत्यंत गोपनीय (सबके सामने प्रकट न करने योग्य) रहस्य को भी प्रकट कर देते हैं॥69 (ख)॥












































































































































































































































































































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